पलायन पर गढ़वाली कविता: उत्तराखंड में पलायन का दर्द बयाँ करती कविता

उत्तराखंड में पलायन के दर्द को बयाँ करती हुई गढ़वाली कविता: प्रिय मित्रो, कैसे है आप लोग ? उम्मीद है सभी उत्तराखंडी लोग जो देश विदेश में जहा कही भी होंगे सब बढ़िया से मजे में होंगे। दोस्तों आज हमारा प्यारा पहाड़ (उत्तराखंड) पलायन की मार झेल रहा है। एक बड़ी आबादी विभिन्न अभावों के चलते यहाँ से पलायन कर गयी है। और फिर भी यहाँ की संस्कृति को जीवित रखे हुवे है यहाँ के बुजुर्ग।

जी हाँ दोस्तों, इस पोस्ट में आप पलायन पर गढ़वाली कविता पढने वाले है। इस कविता में एक ऐसे 80 वर्षीय बुजुर्ग व्यक्ति की कहानी है, जिनका पूरा गाँव पलायन कर चुका है, और अब वह पूरे गाँव मे अकेले रहते हैं, लेकिन उनकी दिनचर्या व कार्यशैली आज भी वैसी ही है जैसे आज से 30 वर्ष पहले थी। वह अपने आप मे खुश व संतुष्ट है, लेकिन उनकी सिर्फ एक ही पीडा़ है और वह है – अकेलापन,, अर्थात “यकुलाँस” !!

पलायन पर गढ़वाली कविता
पलायन पर गढ़वाली कविता

पलायन पर गढ़वाली कविता: उत्तराखंड में पलायन के दर्द को बयाँ करती हुई गढ़वाली कविता

जब तक चलदि साँस,
तब तक आस रै जान्द,

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द

सुवेर पन्देरा मा मारी लपाक
हाथ मुख पर पाणी छपाक
गिलास भोरी च्या पीण
दगडा़ मा मारी गूडा़ कटाक ।

चटणि मा बासी रवटि चपै की
सरा शरेल मा मिठास ह्वै जान्द ।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द ।

म्वाला मुखर घाण्डी खाँखर
दौंली बान्धी बल्दू फर
सफेद कुर्ता काली फथकी
भ्यूँला कि सिटुकी हाथ फर

बीज कुछ भी बुतन्दू लाटा
पर फुगंडू़ मा घास ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

अजि भि मि यखुली गोर चरान्दू
झुल्लू अगेला न साफी जगान्दू
बस छतलूं लांठू दगड़्या म्यारा
अफी पकान्दू अफी ही खान्दू,

यखुली जिकुडा़ रूड़ प्वडी़ रैन्द
आँख्यू मा चौमास ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

हुक्का सजद चिलम भि बजद
बरसि मा दिनभर आग भि जगद,
यखुलि यखुलि बैठ्यूँ रैन्दू
चौंतरा मा अब कछडी़ नि लगद,

यखुलि यखुलि तम्बाकु खै-खै की
जिकुडी़ मा अब स्वाँस ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

राति खुणि स्वीणा नि आन्दा
भूत पिचास भि अब नि डरान्दा
बाच कखि कैकी कभि नि सुणेन्दी
लोग नि दिख्याँ महीनौ ह्वै जान्दा।

खटुलि मा टुप पोडि़की सोचदू
कुजणि कब स्वर्गवास ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

एक नौनू दिल्ली हैंकु बंगलौर
बेटी भि परदेश अपणा अपणा ठौर,
बुढडी़ म्वर्याँ पाँच साल ह्वैगी
तब बटि यखुलि मि घौर,

पुरणा दिनों थै सोचि सोचि कभि
यू मन भारी उदास ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

फोन कना रैन्दि नाती- नतेणा
मीथै बुलाणा मीथै भटेणा,
पर मि कनक्वै छोडि़ कि चलि जौं
म्यरा पुरण्यों का फाँगा बंझेणा,

वूँका एसी वला फ्लैटों मा
मैकू ता वनबास ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

जीवन की चा या सच्चाई
जैन भि मंथा मा जन्म पाई,
सब्बि धाणि यखि रै जान्द
मनखि खाली आई खाली गाई,

पर मोह-माया तब छुटदी लाटा
जब यु शरैल लांश ह्वै जान्द।

दिन ता कटि ही जान्द लाटा,
व्यखुनि बगत यकुलाँस ह्वै जान्द
रूमुक बगत यकुलाँस ह्वै जान्द।

✍️सतीश बस्नुवाल
दिगोलीखाल, नैनीडाण्डा
पौडी़ गढ़वाल ।

दोस्तों, पलायन पर गढ़वाली कविता: उत्तराखंड में पलायन के दर्द को बयाँ करती हुई गढ़वाली कविता के बारे में यह जानकारी आपको कैसे लगी? नीचे कमेन्ट करके जरुर बताइए। उत्तराखंड और देश – विदेश से जुडी ऐसे ही तमाम रोचक जानकारी के लिए हमारी साईट www.devbhumiuk.com पर आते रहिये।

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